हंसमुख था, पर मौन नहीं,
जनता था मुझे कौन नहीं,
सब सपने देखते थे,
मैं सपनो में रहता था,
जो मन की थी कुछ बातें,
किसीसे न कहता था.
हाँ कुछ नटखट था मन,
पर बुरा भी नहीं था,
गलतियाँ होती थी फिर भी,
किसीका दिल दुखाया नहीं था,
याद है वो कल्पनाएँ,
जिनके साथ मैं खेला करता था,
खुद से करता था बातें,
खुद ही मैं निदेशक बनता था,
चाहता तो था कि मिटटी में खेलूं,
एक सुन्दर सा घर बना दूँ मैं,
जिसे खुद मैं भी न समझ पाया,
हाँ वही अंकुश हूँ मैं,
कक्षा में प्रथम आ जाऊं,
मम्मी पापा का था सपना,
दिन रात किताबों से बातें की,
उन्ही में शायद वजूद था अपना,
भीड़ में था पर फिर भी अलग,
जाने क्यों अकेला हो जाया करता था,
जिंदगी जाने क्यों इतनी अलग थी सबसे,
सोचकर मैं अक्सर रो जाया करता था,
सबकी कहानियां सबकी जुबानीयां,
सब मेरे लिए जैसे अनजान से थे,
कमरे में मेरा दिन बस बीत जाता था,
मेरे खेल तो बस मेरी उन किताबों में थे,
फिर वो समय भी आया जब,
मुझे जिन्दगी में कुछ दूर आना था,
जरुरी सामान लेकर मुझे,
फिर छात्रवास में जाना था,
जवाहर नवोदय विद्यालय में दाखिला,
वो भी मेरे लिए आश्चर्य ही था,
सब इतनी बड़ी बड़ी बातें करते हैं,
और मुझे तो आता था ही क्या,
था सबके लिए वो पिंजरा,
पर मुझे खुला असमान मिल गया था,
तब सब अलग थे, सब नए थे,
मेरे लिए तो पूरा लम्हा नया था,
एक अचंभा एक अनाड़ी,
घूम लिया वहां जैसे दुनिया सारी,
अकेले ही खेला, अकेले ही रोया,
रहता था मैं हर पल खुदमे ही खोया,
हां फिर कुछ दोस्त मिले,
दोस्ती भी मैने खूब निभाई,
तंग भी किया है लड़ाई भी की,
कभी यार के लिए डांट भी खाई,
पढ़ाई में ढीला जरूर था हुआ,
क्योंकि आदत से मैं मजबुर था,
पढ़ाई तो डंडे के जोर पर सीखी थी घरमें,
पर डंडे का डर तो बहुत दूर था।
सिखा खुद ही खुदको बनाना,
खुद ही खुद से खुदको हंसाना,
फिर जवानी की वो आहत,
जो सब समझते हैं सब जानते हैं,
वो वाली मेरी है वो वाली तेरी,
प्यार वाला टैग लड़की पर टांगते हैं,
कहानी अपनी भी नहीं,
इतनी ज्यादा कुछ खास है,
थोड़ी भावनाएं, थोड़ी बेवूफियां,
फ़ालतू फिर भी वो यादगार अहसास है,
दूर से उसे देखना, छुपकर निहारना,
अजीब ही चीज है ये ढोंगी सा प्यार ना,
लिखी दो बातें फिर मैं हुआ शुरू,
मैंने कई डायरीयां भी बनाई थी,
सब जो लिखा चोरी हो गया,
उनमें से एक भी वापस मिल पाई नहीं,
समय आया जब ऐसा,
अब एक विषय चुनना था,
विज्ञान, व्यापार, वितीय प्रबन्धन,
जो जैसे अनजान अनसुना था
पापा ने चाहा विज्ञान पढ़लूं,
सब आज भी याद है वैसे ही वहीं हैं,
एक शिक्षक जिससे नफरत हो गई,
कह गया यह मेरे बस में नहीं है,
वितिय प्रबंधन और पापा की नाराज़गी,
सब तो मेरी मजबूरी सी थी,
अच्छे परिणाम भी ले कर आया,
फिरभी मेरी कोशिश अधूरी थी,
वो आहत हिलोर सी,
जाने की पास से गुजर जाती थी,
बहक जाता था मैं कभी,
फिर कभी हालत फिर सुधर जाती थी,
अचानक एक आंधी सी आयी,
मां को आंधी बहुत दूर ले गई,
टूट गया था बिखर गया सबकुछ,
मां को खोने से बड़ा दुख है क्या कोई,
एक लड़खड़ाती सी जिंदगी को,
फिर उनका सहारा मिला,
एक दोस्त पंकज, एक बहन अक्षिता,
मेरी मां से जैसे मैं दोबारा मिला।
मां का लगाव, दोस्तों की मस्ती,
प्यार का मतलब तो तभी मैं समझा,
हम इंसान बांटते हैं बस सबको,
नहीं कोई मतलबी है हम सा,
बिछडने का समय फिर आ गया,
फिर सबको घर जाना था,
छुट्टी नहीं थी इस बार जो वापिस आते,
पर सबको लगता था जैसे फिर वापिस आना था।
घर आकर भी अब लगता है,
यह तो मेरा घर नहीं है,
मेरा स्कूल, मेरा हॉस्टल,
आज भी लगता है घर वहीं है।
खुदा से ज्यादा याद इस लम्हे को करता हूं,
और मुझे लगता है ये भी सही है,
कुछ अनोखी खट्टी मीठी यादों से भरी,
अभी तक की मेरी कहनी यही है,
© अंकुश आनंद
Very nice brother
Thanks bro
Are bhai tum to chhupe rustam nikle. Kavi ban gaye..
Thanks Bhai,
Par Ye kaam me 8th Class se krta hun… Poems and Writing
Very nice ?
Thanks