
यूं तो हम पूछा नहीं करते हर दफा इन हवाओं से,
अनजाने में ही तेरा हाल बयान कर जाती हैं,
ना जाने कहां ले जाए ये हवाएं किन रास्तों में,
क्या मेरी खबर भी उस ओर ये पहुंचाती है।
ना समझ है, ना ढिकाना है कोई,
धूल संग उठा ले जा रही है,
ये हवा जो बह रही है,
कुछ तो ये कह जा रही है,
क्यों मौसम में नमी है,
क्यों गुमसुम ये नदी है,
अनसुलझी सी ये पहेली,
व्यंगात्मक गीत गा रही है।
ना जोर वक्त का है,
ना छोर इस ज़ख्म का है,
जो रुका सा ये समय हो रहा है,
सूरज भी अभी जो सो रहा है।
हवाऐं रुख बदल रही हैं,
जिनका जिक्र नासमझ सा हुआ है,
हां। हां, ये वही हैं।
पूछे है ये सवाल कुछ,
ना हवाऐं उस ओर सुन पा रही हैं,
सूखे हैं फिलहाल ये धूल के कण,
पर फिर भी नमी को बढ़ा रहे हैं।
हवा मेरा मन है,
धूल मन में उत्पन्न विचलित विचार,
नदी को अक्ष मान लो,
और मौसम है मन का हाल।
वक्त का किस्मत से जोड़ है,
ज़ख्म तो हमारे हर ओर है,
समय सासों से सम्बन्ध रखता है,
और सूरज शायद चित हो सकता है।
हां । मुश्किल तो है,
पर वक्त का तो मिजाज़ ही ऐसा है,
जैसे समंदर में हो आप एक नाव में सवार,
सूरज, धूल, नमी, समय और बस हवा के साथ।
©अंकुश आनंद ‘अक्षआंश ‘
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